अफसर बेईमान हैं. चपरासीबाबू से ले कर कलक्टर और कमिश्नर तक बेईमान हैं. हमारी व्यवस्था पर रिश्वत दाग है. ऐसे में आम आदमी कहां जाए? किस का दरवाजा खटखटाए? छोटेबड़े काम के लिए पैसे मांगे जाते हैं. अफसरशाही समय के साथसाथ तानाशाह हो रही है

आजादी को मिले 68 साल हो गए हैं. देश ने तरक्की के डग तो भरे हैं, लेकिन हमारे अफसरों ने लोकतंत्र का बेजा फायदा उठाया है. वे कानून की लचीली गलियों, लालफीताशाही, लचर व्यवस्था के चलते सालों तक फाइलों को अटकातेदबाते रहते हैं.

बच्चों का जन्मतिथि प्रमाणपत्र बनवाने से ले कर वृद्धावस्था पैंशन, विधवा पैंशन और तमाम तरह के कामों में आम आदमी को प्रशासन के चक्कर लगाने पड़ते हैं, पर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है.

जनसुनवाई में मामले इस तरह अटकाए जाते हैं कि सालों तक नहीं सुलझते. अफसरों के खिलाफ कार्यवाही करने के दर्जनों कानून हैं, लेकिन जिन कानूनों को अफसर बनाते हैं, उन की तंग गलियों का सहारा ले कर वे बच निकलते हैं. अफसरशाही की चेन इतनी लंबी और मजबूत है कि अगर उन पर आंच भी आती है, तो सारे अफसर एक हो जाते हैं.

भ्रष्टाचार की शुरुआत गांव के पटवारी, ग्रामसेवक से शुरू होती है, जो बीडीओ, कोष अधिकारी, एसडीएम, एडीएम से ले कर कलक्टर, कमिश्नर तक एकदूसरे से जुड़ी रहती है.

एकएक जिले में जनसुनवाई के हजारों से ज्यादा मामले लंबित रहते हैं. अफसरों में इच्छाशक्ति की कमी है. वे काम करना ही नहीं चाहते हैं. अगर कोई अच्छा काम करता भी है, तो उसे छुटभैए मुलाजिम सहयोग नहीं करते हैं.

देश की आजादी के बाद भी गांवों की तसवीर नहीं बदली है. देश की 85 फीसदी जनता को पीने का साफ पानी नहीं मिलता है. 75 फीसदी लोग रोजाना 80 रुपए से कम की आमदनी वाले हैं.

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