लिव इन आज की बदलती जीवनशैली के अनुरूप युवाओं द्वारा ईजाद किया गया थोड़ा कम आजमाया कौंसैप्ट है. पहले लड़के बाइयों के यहां पड़े रहते थे या फिर उन के भाभियों, कजिनों के साथ संबंध तो होते थे पर वे एक घर में नहीं रहते थे. घर नहीं चलाते थे. लड़के लड़की की कपल्स की तरह साथ रहने की व्यवस्था यानी लिव इन में वैवाहिक जिंदगी की हसरतें तो पूरी होती हैं, एकदूसरे का साथ भी मिलता है पर लंबी जिम्मेदारियां निभाने का कोई वादा नहीं होता. कभी भी अलग हो जाने की आजादी रहती है. यह कौंसैप्ट शादी के लिए तैयार नहीं लोगों को लुभावना नजर आता है, पर अंदर से उतना ही खोखला और अस्थाई तो है ही, पर उस में भी बहुत जिम्मेदारियां भरी पड़ी हैं. शायद यही वजह है कि ज्यादातर लोग खासकर लड़कियां आज भी इसे स्वीकार नहीं कर पातीं.

अधूरेपन की कसक

एक तरह से यह रिश्ता धार्मिक मान्यताओं की जकड़न, सामाजिक रीतिरिवाजों और शोशेबाजी के रंग से दूर है और कानून ने भी इसे कुछ हद तक मान्यता दे दी है. मगर फिर भी इस रिश्ते के अधूरेपन को अनदेखा नहीं किया जा सकता खासकर लड़कियां इस तरह के रिश्ते में कई बार गहरी मानसिक पीड़ा से गुजरती हैं.

दरअसल, लिव इन में रिश्ता जब गहरा होता है और दोनों एकदूसरे के करीब आते हैं, शारीरिक संबंध बनते हैं, तो वह जज्बा लड़की के मन में हमेशा साथ रहने की चाहत को जन्म देता है.

50 मिनट की नजदीकी 50 सालों के साथ की इच्छा में बदलने लगती है. मगर जरूरी नहीं कि लड़का भी इसी रूप में सोचे और जिम्मेदारियां निभाने को तैयार हो जाए.

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