ऐसे वक्त में, जब चीन और अमेरिकी प्रतिनिधि वाशिंगटन में बनी सहमति के मुद्दों को अमली जामा देने की नई प्रक्रिया में जुटे हों, जरूरी है कि ऐसा कुछ न हो, जो इसे प्रभावित करने का काम करे. सच है कि बार-बार के व्यापारिक विवादों ने दोनों देशों के साथ वैश्विक बाजार पर भी असर डाला है. चीन ने व्यापारिक कड़ियों की मजबूती ही देखी, लेकिन अमेरिका बाज नहीं आ रहा.

चीन ने दोनों पक्षों के बीच आम सहमति की जमीन तलाशने की बेचैनी और उसके नतीजे देखे हैं. लेकिन अमेरिका अब तक दंडात्मक टैरिफ के इरादे से चिपका हुआ है. व्हाइट हाउस ने फिर चीनी आयात पर 25 फीसदी टैरिफ थोपने की बात कही है, जबकि साझा सहमति और अमेरिका के ट्रेड वार रोकने पर सहमत हो जाने के बाद ऐसी हरकतें वाशिंगटन को अविश्वसनीय बनाती हैं.

कभी-कभी लगता है कि व्यापार विवाद का यह दौर अभी लंबा चलेगा. व्यापार विवाद चीन के लिए गंभीर चुनौती रहे हैं. चिंता है कि वार्ता व अंतर्विरोध की लुकाछिपी कहीं नई मुश्किल न खड़ी कर दे. ऐसे में, चीन के लिए विकास की अपनी रफ्तार बनाए रखना जरूरी है. अमेरिका से विवाद निपटाने में दो सूत्री सिद्धांतों पर ध्यान देना होगा- एक तो यह कि अमेरिका आर्थिक विकास में चीन की साझेदारी चाहे तो हमें स्वागत करना चाहिए, लेकिन अमेरिका से निर्यात बढ़ना चीन की कमजोरी न माना जाए. साथ ही, चीनी हित प्रभावित करने वाले किसी अमेरिकी प्रयास को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.

वाशिंगटन सहमति परस्पर सहयोग का बड़ा द्वार है, तो परस्पर हितों का ध्यान रखना भी जरूरी है. ठीक वैसे ही है, जैसे दोनों के सामने एक विशाल केक रखा है, पर किसी एक की भी नियत साफ न हो, तो केक का स्वाद बिगड़ते देर नहीं लगेगी. अमेरिका को पता होना चाहिए कि वह वास्तव में चाहता क्या है- ज्यादा टैरिफ या ज्यादा निर्यात, क्योंकि दोनों एक साथ तो चल नहीं सकते. व्यापार वार्ताओं का नतीजा अमेरिका के प्रति झुकाव के रूप में नहीं, पारस्परिक समान लाभ के रूप में आना चाहिए. उम्मीद है, रोस की यात्रा अमेरिका को एक नई यथार्थवादी अंतर्दृष्टि देगी.

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