5 हजार साल से अधिक के इतिहास में 2007 में शायद पहली बार देश के किसी हिस्से में दलितों की अगुआई में बहुमत से सरकार बनी थी. दलित और उस से जुड़े लोग इसे बदलाव की नई बयार के रूप में देख रहे थे. इस के पहले तक दलित ऊंची जातियों के नीचे काम करता था. उस को सत्ता तो दूर, बराबर में बैठने और खाने व पीने का भी अधिकार नहीं था. न वह ऊंची जातियों की तरह खुशियां मना सकता था और न ही दुखों को जाहिर कर सकता था.

जब देश आजाद हुआ तब यह लगा कि शायद दलितों को बराबरी का हक मिल जाएगा. लोकतंत्र के नाम पर दलितों को ऊंची जातियों के पीछे चलने का ही हक मिला था. आजादी के कुछ समय पहले से ही दलित समाज के हित के लिए बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने एक नई राजनीतिक ताकत को जुटाने का प्रयास शुरू किया था.

चुनावी बदलाव के बाद लोगों को यकीन हो चला था कि बहुमत की सरकार बनाने के बाद मायावती दलितों की भलाई के काम करेंगी. लेकिन यह भ्रम जल्दी ही टूट गया. नतीजतन, मायावती से लोगों का ऐसा मोहभंग हुआ कि बसपा अपने सब से बुरे दौर में वापस चली गई.

2007 में बहुमत की सरकार बनाने का लाभ मायावती दलितों की भलाई में नहीं लगा सकीं. न वे दलितों के हालात बदल सकीं, न ही दलित समाज को सही राह दिखाने में सफल रहीं. यही वजह थी कि 5 साल सरकार चलाने के बाद मायावती को चुनावदर चुनाव हार का सामना करना पड़ा.

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