8 दिसंबर, 2003 को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद वोटों की गिनती के वक्त जब कांग्रेस बहुत पिछड़ने लगी थी तब भी तब के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह यह मानने को तैयार नहीं हो रहे थे कि वोटर ने उन्हें और कांग्रेस को खारिज कर दिया है. लेकिन जैसे ही आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ से ऐसे रुझान आने शुरू हुए कि कांग्रेस यहां भी भाजपा से पिछड़ रही है तब एकाएक ही दिग्विजय सिंह मतगणना बीच में ही छोड़ कर चलते बने थे.

जाहिर है, उन्हें समझ आ गया था कि जब आदिवासी इलाकों में ही कांग्रेस पिछड़ रही है तो सत्ता की उम्मीद रखना मन बहलाने जैसी बात है.

ऐसा पहली दफा हुआ था कि आदिवासी बाहुल्य सीटों पर भाजपा ने बाजी मार ली थी. इस के बाद से हर चुनाव में आदिवासी भाजपा को जिताते रहे थे, तो इस की वजहें भी थीं. लेकिन क्या इस साल के विधानसभा चुनाव में यह चलन कायम होगा कि आदिवासी वोट भाजपा को जाएं?

इस बात में अब शक पैदा होने लगा है. आदिवासी बाहुल्य इलाकों में भाजपा ताबड़तोड़ तैयारियां कर रही है तो इस से उस की चिंता ही जाहिर होती है कि इस दफा जीत आसान नहीं है.

आजादी के बाद से ही आदिवासी कांग्रेस को वोट देते आए थे क्योंकि तब कोई दूसरी पार्टी आदिवासी इलाकों में प्रचार के लिए नहीं जाती थी और आदिवासी भी कांग्रेस को अपनी हमदर्द पार्टी मानते थे. धीरेधीरे उन की गलतफहमी दूर हुई और भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आदिवासी इलाकों में जा कर प्रचारप्रसार शुरू किया तो आदिवासियों का झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ने लगा.

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