पाकिस्तान में राजनीतिक प्रक्रिया जिस दिशा में जाती दिख रही है, उससे कुछ लोग भले खुश हों लें, लेकिन देश के भविष्य के मद्देनजर इसमें कई त्रासद संदेश छिपे हैं. अन्य तमाम बातों के अलावा इतना तो साफ दिख रहा है कि किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने जा रहा.

पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) ने जिताऊ के नाम पर अनाप-अनाप टिकट भले बांटे, अब तक अनिश्चितता का शिकार है. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) सिंध तक सिमटती दिखाई दे रही है और त्रिशंकु संसद की स्थिति में ही उसे अपना कोई भविष्य दिख रहा है. नवाज शरीफ की पीएमएल-एन के उम्मीदवार कमर-उल-इस्लाम किसी भी वक्त किसी अदालत से दोषी ठहराए जा सकते हैं. ये और ऐसे तमाम मामले हर उस दल के लिए परेशानी और अनिश्चितता का सबब बने हुए हैं, जिनके लोग नेशनल अकांटबिलिटी बोर्ड के राडार पर हैं.

नवाज शरीफ ‘राष्ट्रीय एकता सरकार’ की वकालत करते भले ही दिखाई देने लगे हों, क्योंकि उनकी नजर में मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर किसी एक दल के लिए देश को आगे ले जा पाना संभव नहीं होगा. लेकिन देश के तीनों प्रमुख दलों के बीच की परस्पर कटुता का जो माहौल है, उसमें यह खयाल ही यथार्थ की जमीन से कोसों दूर लगता है.

क्षेत्रीय मुद्दों को छोड़ भी दें तो अमेरिका के साथ असहज संबंध और चुनाव बाद उभरने वाली संभावित चुनौतियों के मद्देनजर भी नई सरकार के लिए आर्थिक मोर्चा टेढ़ी खीर बनने जा रहा है. विदेशी मुद्रा भंडार अक्तूबर 2016 की ऊंचाई से ढुलककर बहुत नीचे आ चुका है और यह अब भी ढलान पर ही है. सच तो यह है कि देश एक बार फिर कटोरा लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दरवाजे खटखटाने की मजबूरी में आ चुका है, पर अमेरिका से बिगड़े रिश्तों के कारण वहां भी पूर्व शर्तें थोपे जाने की आशंका मंडरा रही है.

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