बड़े बांधों जैसे टिहरी और सरदार सरोवर परियोजनाओं को छोड़ दिया जाए तो हिंदुस्तान के इतिहास में किसी और सरकारी परियोजना का अब तक इतना जबरदस्त विरोध कभी नहीं हुआ जितना अहमदाबाद से मुंबई के लिए प्रस्तावित बुलेट ट्रेन परियोजना का हो रहा है. इस विरोध के कईर् पहलू हैं, लेकिन जो इसे सब से ज्यादा मुखर बनाता है, वह यह सवाल है कि क्या सचमुच अहमदाबाद से मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन को चलाया जाना बहुत जरूरी है? निश्चित ही इस सवाल का जवाब है, नहीं.

अगर हम प्रस्तावित बुलेट ट्रेन को जबरदस्ती देश की शान से न जोड़ें तो ऐसा कोई तर्क नहीं है जो इस परियोजना को एक जरूरी परियोजना बता सके. शायद यही वजह है कि सितंबर 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने मिल कर अहमदाबाद से मुंबई के बीच प्रस्तावित जिस महत्त्वाकांक्षी बुलेट ट्रेन परियोजना की नींव रखी थी, अब तक वह लगभग नींव रखे जाने की स्थिति में ही है.

योजना के मुताबिक, 350 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से चलने के लिए प्रस्तावित हिंदुस्तान की इस सब से तेज ट्रेन की निर्माण परियोजना का कार्य इस साल के मध्य तक खूब जोरशोर से शुरू हो जाना था. लेकिन इस प्रस्तावित परियोजना की न तो अभी शुरुआत हुई है और न ही जरूरी जमीन का अधिग्रहण हुआ है. मतलब साफ है कि परियोजना शुरू हो जाने के बाद ट्रेन भले कितनी ही रफ्तार से चले लेकिन फिलहाल तो उस की निर्माण परियोजना पैसेंजर टे्रन से भी ज्यादा सुस्त है.

सवाल है आखिर देश की अब तक कि सब से तेज प्रस्तावित ट्रेन की यह निर्माण परियोजना इतनी सुस्त क्यों है? जाहिर है इस की वजह इस का जबरदस्त विरोध है. जिद पर उतारु केंद्र सरकार मोदी सरकार भले ही इस परियोजना को देश के विकास का अगला चरण बता रही हो या इसे नैक्स्ट इंडिया का सिंबल बना रही हो, लेकिन व्यावहारिक हकीकत यही है कि इस परियोजना से ज्यादातर लोग नाखुश हैं. 4 राज्यों के जिन किसानों की उपजाऊ जमीन इस तेज रफ्तार बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए अधिग्रहित की जानी है, वे तो इस का विरोध करते ही हैं, वे लोग भी इस का विरोध कर रहे हैं जिन्हें हम रेल परिवहन के संदर्भ में विशेषज्ञों का दर्जा दे सकते हैं.

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