1. गलतफहमी छोड़नी होगी BJP को

बीजेपी को इस गलतफहमी से निकलना ही होगा कि सिर्फ मोदी के चेहरे को आगे कर सभी चुनाव जीते जा सकते हैं. 2014 में मोदी का जो आभामंडल दिखा था, 2019 आते-आते उसके बरकरार रहने की सम्भावनाओं पर विराम लगता दिख रहा है. वोटर सिर्फ भाषण के जरिए तसल्ली पाने के मूड में नहीं हैं. वह अपने हित के मुद्दों पर ठोस काम देखना चाहता है. पार्टी के अजेंडे और सरकार की परफार्मेंस पर बात बढ़ी है.

  1. जवाबदेही से बच नहीं सकतीं सरकारें

एंटी-इनकम्बेन्सी (सरकार से नाराजगी) फैक्टर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पार्टी 15 साल से सत्ता में हो या महज 5 साल से, वोटर जानना चाहता है कि चुनाव में जो वादे किए गए थे, उनका क्या हुआ/ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15-15 साल से सत्ता में रहने वाले मुख्यमंत्रियों को जिन सवालों से रूबरू होना पड़ा, वैसे ही सवाल से 5-5 साल से सत्ता में रहे राजस्थान और तेलंगाना के मुख्यमंत्रियों के सामने भी थे.

  1. काम न आई रंग बदलने की कोशिश

बीजेपी को विकास के अजेंडे पर लौटना ही पड़ेगा. बीजेपी कह सकती है कि वह इससे इतर गई ही कब थी, लेकिन जिस तरह से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में, जहां पार्टी पिछले 15 बरसों से सत्ता में थी, वहां योगी आदित्यनाथ को आगे कर चुनाव का रंग बदलने की कोशिश हुई, उसने नुकसान ही किया. दोनों सरकारों के काम पर बात कम हुई, जबकि योगी के बयानों पर बहस ज्यादा.

  1. कांग्रेस भी खुशफहमी न पाले

कांग्रेस को भी बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है. ऐसा नहीं कि कांग्रेस के पक्ष में कोई लहर चल रही है, जहां भी चुनाव हुए एंटी-इनकम्बेन्सी फैक्टर काम कर रहा था. बीजेपी शासित तीनों राज्यों में उसके मुखालिफ कांग्रेस के अलावा कोई और मजबूत विकल्प नहीं था. अगर कांग्रेस के पक्ष में कोई लहर होती तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में इतना करीबी मुकाबला नहीं छूटता और तेलंगाना में भी पार्टी को टीआरएस से नहीं पिटना पड़ता.

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