लखनऊ में सफाई कर्मचारी आयोग की एक सदस्य मंजू दिलेर के सामने सफाई कर्मचारियों ने पोल खोली है कि उन को ठेकेदारों के मारफत मिलने वाले वेतन में से भी हिस्सा अधिकारियों को देना पड़ता है. यह लखनऊ में ही नहीं होता, देशभर में होता है, धड़ल्ले से होता है. जिन सफाई कर्मचारियों के साथ अफसर बैठ कर खाना खाने तक तैयार नहीं हों उन से हिस्सा मांगने पर उन्हें कोई एतराज नहीं होता. यह पूरी तरह हमारे पौराणिक धार्मिक रिवाज के हिसाब से है.

सदियों से इस देश में शूद्रों को अपने हाथ में आई लक्ष्मी को दान करने के हुक्म दिए गए हैं. शूद्रों को वैसे तो नीचा समझा गया पर उन का पैसा कभी अशुद्ध नहीं होता. सफाई कर्मचारी जैसे अछूतों का जिक्र तो हमारे पुराणों में उतना ही है जितना जानवरों का होता है पर बारबार यह कहा गया है कि शूद्र या अछूत की छुई हर चीज को शुद्ध कर के इस्तेमाल करना चाहिए पर लक्ष्मी को शुद्ध करने की जरूरत नहीं.

यह दोगलापन आज भी उसी तरह कायम है. जाति व्यवस्था है ही इसलिए कि अछूतों को मजबूर किया जा सके कि वे छोटे काम करते रहें और कम से कम पैसे लें. कहीं वे ज्यादा पैसा न मांग लें इसलिए उन्हें मारापीटा जाता है. उन्हें बैंडबाजा नहीं बजाने दिया जाता, उन्हें ऊंचों की लड़कियों के पास आने से रोका जाता है.

सफाई कर्मचारी देश की आज पहली जरूरत हैं पर स्वच्छ भारत अभियान में वे गायब रहे. यह नरेंद्र मोदी की सोचीसमझी नीति थी. अछूत सफाई कर्मचारी ब्लैकमेल न करें इसलिए ऊंचों को शौचालय बनाने को अरबों दिए गए. गरीब दलितों के शौच पर पैर न पड़ें इसलिए उन्हें छोटे से घर में शौच जाने को मजबूर करना चाहा. उन्हें पैसा दिया गया पर उन से भी कमीशन काट कर.

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