नौकरियों के घटते अवसर और  प्राइवेट स्कूलों के बढ़ते खर्चों से परेशान हो कर मातापिता एक बार फिर सरकारी स्कूलों की ओर रुख करने लगे हैं. 1950 से 1980 तक की पीढ़ी ज्यादातर इन्हीं सरकारी स्कूलों की देन है पर जब अंगरेजी माध्यम वाले निजी स्कूलों ने जोर मारा तो सरकारी स्कूलों को उन की घटिया पढ़ाई के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए मातापिताओं ने प्राइवेट स्कूलों में लाइनें लगानी शुरू कर दीं, जिस की एक झलक हालिया रिलीज एक फिल्म में दिखी भी.

सरकारी स्कूलोंको छोड़ने की वजह उन की पढ़ाई का गिरता स्तर ही नहीं था, बल्कि उन स्कूलों के दरवाजे तथाकथित नीची जातियों के लिए खोले जाने भी थे. इन स्कूलों में अमीरों के बच्चों के साथ गरीबों के बच्चे तो आते ही थे, ऊंचे वर्णों के साथ नीचे वर्णों के बच्चे भी आने लगे, यह ऊंचे वर्णों को मंजूर न था. जातिवाद की खाइयों को स्कूलों की पढ़ाई पाट दे, इसलिए ऊंचे वर्णों ने पहले तो ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जाने वाले स्कूलों की ओर रुख किया और फिर धड़ाधड़ अपने स्कूल खोले.

व्यापारियों ने इस में पैसा भी देखा और उन्होंने मुनाफा न कमाने वाली समाजसेवी संस्थाएं खोल कर हजारों स्कूल खोल डाले जबकि उन का उद्देश्य केवल पैसा कमाना है. आज इन स्कूलों में जो अच्छी पढ़ाई हो रही है वह स्कूलों के भव्य भवनों की वजह से नहीं, अच्छे अध्यापकों की वजह से नहीं, अनुशासन की वजह से नहीं बल्कि मातापिताओं की अपने बच्चों की निरंतर देखरेख के कारण हो रही है.

फिर भी, सरकारी स्कूल 12वीं की परीक्षाओं में बाजी मार रहे हैं. सैकड़ों मेधावी बच्चे सरकारी स्कूलों से निकल कर आ रहे हैं. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मातापिता सुविधाओं के अभाव में, पेट काट कर बच्चों को पढ़ा रहे हैं.

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