फिल्म ‘संजू’ जो अभिनेता संजय दत्त के जीवन पर आधारित है, पैसा तो खूब कमा रही है पर थोड़ी कंट्रोवर्सी भी खड़ी कर रही है. सवाल उठाया जा रहा है कि फिल्म के जरिए संजय दत्त को आखिर क्यों दूध का धुला साबित करने की कोशिश की गई है.

फिल्म उद्योग अपने सितारों को मालाएं पहनाए, यह उस का हक है. वह संजय दत्त की खामियों और गलतियों को नजरअंदाज कर दे और फिल्मों के सहारे उसे चढ़ा दे, यह भी उस का हक है पर आम जनता जिस तरह से फिल्म देखने जा रही है, यह अजीब है. इस फिल्म को देखने का मतलब है कि आप ने फिल्मकार की बात मान ली और संजय दत्त को सर्कम्सटांसेज का शिकार मान लिया.

संजय दत्त कोई बच्चा नहीं था कि वह नशेड़ी बन गया या उस ने एके 47 राइफल हथिया ली कि कहीं हिंदू आतंकवादियों की भीड़, उस के मुताबिक, उस की मां पर हमला न कर दे. संजय दत्त के अभिनेता पिता सुनील दत्त, जो राजनीति में भी रहे हैं, हमेशा कांग्रेस के साथ रहे हैं और दंगों में हिंदू उपद्रवियों ने हर ऐसे को शिकार बनाने की कोशिश की थी जिसे वे कांग्रेसी पिट्ठू समझते थे.

खतरे का अंदेशा होने का अर्थ यह नहीं कि सितारे का कोई बेटा खुद को हमलावर भीड़ को मारने के लायक समझ ले. ऐसा फिल्मों में होता है कि एक हथियारबंद व्यक्ति 100-200 की हमलावर भीड़ का मुकाबला कामयाबी के साथ कर लेता है. संजू को इस अपराध के लिए सजा मिली और सही ही मिली. उस ने चाहे गलती मान ली पर अदालतों ने उसे माफी लायक नहीं माना, यह अदालत का इंसाफ था. ऐसे में उस पर बनने वाली फिल्म का बैलेंस्ड होना जरूरी था. लेकिन ‘संजू’ फिल्म संजय दत्त की पोल नहीं बल्कि उस की गलतियों पर परदा डालने की कोशिश करती नजर आई है.

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