वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री चाहे जितना बोस्ट कर लें कि भारत दुनिया में सब से ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है, जमीनी हकीकत यह है कि न देश में नौकरियां हैं और न देश के बाहर. देश में भुखमरी की हालत नहीं है, क्योंकि कुछ लोग बहुत कमा रहे हैं और कुछ पहले से देश से बाहर रह कर कमा कर सरकार के विदेशी मुद्रा के खजाने को भर रहे हैं.

अब देश के पिंक आर्थिक समाचारपत्रों में नई कंपनियों और नए उत्पादों के बनने के विज्ञापन व समाचार कम हो रहे हैं. अब रिटेल व्यवसाय में शाइन जरूर है और किराने की दुकान की जगह मेगा स्टोर और औनलाइन स्टोर खुल रहे हैं जिन की चमक तो है पर बारिश के नाम पर बूंदाबांदी में स्टोर चीजों को सस्ता कर के उन की मांग थोड़ी बढ़ा रहे हैं, पर इस का मतलब यह भी है कि पहले का ट्रैडिशनल व्यापार मंदा हो रहा है.

युवाओं के लिए औनलाइन और ब्रिक फंड मौर्टार स्टोर नौकरियों के स्रोत हैं पर कोई विशेष नहीं. इन की मांग सीजनल होती है और व्यापार में अस्थिरता है. औनलाइन कंपनियां सैकड़ोंकरोड़ों के घाटे में चल रही हैं.

नए स्टार्टअपों का हल्ला है पर वे भी कागजी शेर नजर आते हैं. 100-200 में 3-4 चल पाते हैं बाकी निवेशकों का पैसा खा कर शांत हो जाते हैं. नया कैरियर बनाने की चाहत अगर स्टार्टअप शुरू कराए तो ऐसा है मानो रेगिस्तान में अधिक पानी चाहने वाली गन्ने की फसल बोना.

एक बड़ी उम्मीद पढ़ेलिखे युवाओं को विदेशी नौकरियों से थी पर अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूरोप अब दरवाजे बंद कर रहे हैं. सब जगह ‘भारतीयो भारत जाओ’ के नारे लगने लगे हैं. यूरोप पश्चिम एशिया से आए मुसलिम शरणार्थियों को बसाने में लगा है और अमेरिका दक्षिण अमेरिका के घुसपैठियों को रोकने के चक्कर में भारतीयों को भी बोरियाबिस्तर बांधने को कह रहा है. गिरते पैट्रोल के दामों ने तेल निर्यातक देशों में भारतीयों की खपत कम कर दी है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...