देश के गांवदेहातों में ही नहीं कसबों और शहरों की गरीब बस्तियों में भी पढ़ाईलिखाई, साथ नौकरियां करने, साथ चलने के बावजूद जाति और धर्म के भेद आज भी 100 साल पुराने लगते हैं. गुजरात चुनावों में अगर जाति का भूत बोतल से फिर बाहर निकल कर आता दिखा तो सिर्फ इसलिए कि नरेंद्र मोदी और उन की भारतीय जनता पार्टी को लगा कि विकास के मुद्दों पर जिन ऊपरी जातियों को इकट्ठा किया था, वे छिटक रही हैं और राहुल गांधी पर हिंदू धर्म विरोधी यानी जाति को भड़काने का आरोप लगा दो.

राहुल गांधी ने खुद तो कुछ नहीं कहा पर भाजपा समर्थक मीडिया ने इतना कुछ कांग्रेसियों के मुंह से निकलवा लिया कि जाति का सवाल देशभर में सुलगने लगा है. थोड़े ऊंचे पाटीदारों और बहुत नीचे दलितों का साथ हो जाना बहुत ऊंचों को अपनी सत्ता पर हमला दिखा है और इसीलिए जब महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव में दलितों की एक जाति महार के लाखों लोग पेशवाओं की हार की 200वीं बरसी मनाने पहुंचे तो ऊंची जातियों का गुस्सा भड़क उठा.

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गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार पहले से जाति के खुले घावों से कराह रहे हैं. अन्य राज्यों में यह कैंसर है पर छिपा है और पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. यह जिंदगी का हिस्सा है जहां घाव की चीराफाड़ी होने लगी है. लोग समझने लगे हैं कि उन के घावों को कुरेद कर उन्हें काम करने, वह भी लगभग मुफ्त में, मजबूर करा जा रहा है तो आज जो अकेली जबान उन्हें मिली है, वोट की जबान, का इस्तेमाल करने लगे हैं.

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