क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के खिलाड़ी अगर विदेशी भूमि से भी मैडल ले आएं तो उन के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता. अन्य खेलों के ज्यादातर खिलाड़ी बहुत गरीब घरों से आते हैं और जैसे ही वे मैडल पाने की उम्र से बाहर हो जाते हैं, उन की थोड़ीबहुत पूछ जो होती थी, खत्म हो जाती है.

क्रिकेट में तो 20-30 खिलाड़ियों को अच्छा पैसा मिल जाता है पर हौकी, फुटबाल, एथलैटिक्स, कुश्ती, मुक्केबाजी आदि खेलों के पदक प्राप्त खिलाड़ी शुरू से ही खेल अफसरों की कृपा के आदी हो जाते हैं. उन्हें हमेशा पिछड़ा समझा जाता है और खेल अफसर केवल इन खिलाड़ियों को अपने पद के लाभ उठाने का माध्यम बनाते हैं. पदक प्राप्त कर चुके खिलाडि़यों के ईंटगारा उठाते या सब्जी बेचते फोटो अकसर छपते रहते हैं पर देश पर इस का कोई असर नहीं पड़ता.

यह तो मूल बात है कि समाज हो, घर हो या देश हो, पैसा तो काम करने के बाद ही मिलेगा. जब पदक पाया तो जो किया उसे संभाल कर रखा तो ठीक वरना बाद में कोई भाव न देगा, यह स्वाभाविक है. कभी पदक प्राप्त किया था इस बलबूते पर जीवनभर पैंशन पाने की तमन्ना करना ही गलत है. पदक पाने वाला देश या समाज से जीवनभर देखभाल करने की उम्मीद न करे.

असल दिक्कत यह है कि जब खिलाड़ियों को तैयार करा जा रहा होता है तब उन में एक गरूर भर दिया जाता है. उन्हें किसी भी कमाऊ क्षेत्र की योग्यता पाने के लिए तैयार करने की जगह केवल मैडल पाने का मजदूर बना कर रख दिया जाता है. वे न अच्छे श्रमिक रह जाते हैं न अच्छे कारीगर. न अच्छे अफसर और न ही अच्छे प्रशिक्षक. इन सब के लिए पर्याप्त शिक्षा की जरूरत होती है जो इन खिलाडि़यों को नहीं दी जाती.

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